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Friday, December 11, 2015

शिक्षा, सामाजिक न्याय और पाठ्य पुस्तकें -- उद्घाटन वक्तव्य

प्रो. ससांका परेरा,
डीन, समाजशास्त्र संकाय
साउथ एशियन यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली


(Hindi translation of inaugural address at the workshop in Patna organized by the Department of Sociology, South Asian University supported by Rosa Luxemburg Stiftung on curriculum, pedagogy and social transformation. Tnalsted from English to Hindi by Akshay Kumar (अक्षय कुमार), Anil Kumar Roy (अनिल कुमार रॉय) and Madan Mohan Jha (मदन मोहन झा)

मैं समझता हूँ कि रोजा लक्सेम्बर्ग फाउंडेशन के सहयोग से साउथ एशियन यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र संभाग के द्वारा संपन्न इस परियोजना में, सामान्य रूप से सामाजिक न्याय के मसले में शिक्षा के सन्दर्भ और विशेष रूप से शैक्षणिक सुविधा की स्थिति को संबोधित किया गया है. इसमें विद्यालयों में प्रयुक्त होनेवाले पाठ्यपुस्तकों की विषय-वस्तु के भीतर भी झाँकने की भी उम्मीद की जाती है. किसी दूसरे भारतीय प्रांत की अपेक्षा बिहार में इस अध्ययन की शुरुआत के पीछे विशेष मकसद है. पिछले दो दशकों से भी अधिक समय से बिहार सामाजिक न्याय की चिंता के झंडे को बुलंद करता रहा है. अपने-आप में यह एक सराहनीय स्थिति है.

लेकिन, एक समाजशास्त्री के अनुसार कहीं भी सामाजिक न्याय के आदर्शों और वास्तविक उपलब्धियों के बीच प्राय: गंभीर अंतर रहता है. इस परियोजना के जारी शोध के प्रारम्भिक निष्कर्षों में जो तथ्य उभरे हैं, वे भी आदर्श और हकीकत के इस अंतर की ओर इशारा करते हैं. मैं आश्वस्त हूँ कि आप इस कार्यशाला में इसपर जरूर विमर्श करेंगे. इस प्रकाशित प्रतिवेदन में यह स्थिति सारांशित है. लेकिन यह असाम्य एकमात्र बिहार या भारत में ही नहीं है. पूरे दक्षिण एशिया में ऐसी स्थिति देखी जा सकती है. श्रीलंका जैसे देशों में भी, जहाँ भारत के 74% प्रतिशत के विरुद्ध 92% साक्षरता है, साक्षरता की यह संख्या सामाजिक न्याय की वैश्विक वास्तविकता के चित्र को झुठला नहीं सकता है. इसका सीधा अर्थ केवल इतना है कि अधिकतर लोग पढ़ और लिख सकते हैं या अपना हस्ताक्षर तीन भाषाओं में से किसी एक भाषा में कर सकते हैं. यह वृहत पैमाने पर सामाजिक न्याय की प्राप्ति को इंगित नहीं करता है. मैंने बहुत सारे स्कूल देखे हैं, जहाँ मकान नहीं हैं, बिजली-पानी नहीं है, कुछ ही शिक्षक हैं और वहाँ से छात्र कभी भी विश्विद्यालय तक पहुँचते हैं. बल्कि गरीबी के चक्कर में फँस कर रह जाते हैं. इसलिए लक्ष्य के परे संख्यायों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए. हमको यह जानने की आवश्यकता है कि वास्तविक रूप में जमीनी स्तर पर क्या होता है. इस अध्ययन से यह उम्मीद की जाती है कि इसमें यह किया गया होगा.

Image courtesy of Ravi Kumar, Department of Sociology, SAU
इस स्थिति में मैं, अपने काम और सोच के आधार पर, दो बातों की चर्चा करना चाहता हूँ. मैं उम्मीद करता हूँ कि यह इस कार्यशाला को एक व्यापक आधार प्रदान करेगा. पहला है, हमारे लिए सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में शिक्षा का तात्पर्य क्या है. दूसरा, किसी भी कार्यशील लोकतांत्रिक व्यवस्था में पाठ्यपुस्तकें वास्तविक रूप में किस प्रकार की होनी चाहिए.

साउथ अफ्रिका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने कहा है कि “शिक्षा वह सर्वाधिक शक्तिशाली हथियार है, जिसे तुम दुनिया को बदलने के लिए प्रयोग कर सकते हो.” मैं आदर्शात्मक रूप में सोचता हूँ कि हममें से अधिकांश लोग इस बात से सहमत होंगे. दूसरे शब्दों में, शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन, हमारी सोच के तरीकों में बदलाव, नागरिकता की प्राप्ति और, अंतिम रूप से सामाजिक न्याय के स्तर की प्राप्ति है. लेकिन अमेरिका और सामान्य रूप से पश्चिमी दुनिया के देशों में 1960 के दशक से तथा हमारी दुनिया के हिस्से में 1970 के अंत और 1980 के प्रारम्भ में शिक्षा सीधे बाजार से जुड़कर उपयोगिता की चीज हो गयी है.

तब से शिक्षा का ध्यान नागरिक मूल्यों और सामाजिक न्याय पर केन्द्रित नहीं रह गया है, बल्कि यह बाजार के लिए अनुशासित कामगार बनाने के प्रशिक्षण के रूप में रह गया है. अमेरिका की शिक्षा प्रणाली के बारे में बात करते हुए Samuel Bowles और Herbert Gintis ने अपनी पुस्तक Schooling in Capitalist America: Educational Reform and the Contradiction of Economic Life  में यह आधारभूत तर्क दिया है. इस परिप्रेक्ष्य में, स्कूली और विश्वविद्यालीय शिक्षा ने ज्ञान और आचार पर केन्द्रित होने की अनदेखी की है और उसने अपनी परिस्थितियों में केवल निराशाजनक वातावरण का धोखा उत्पन्न करके राजनीति-विमुख श्रमशक्ति के निर्माण की प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित किया है. इस व्यवस्था को Ronald Dore ने ‘Diploma Disease’ के रूप में वर्णन किया है. यह उनकी 1976 की किताब का शीर्षक है.

मुझे लगता है कि आप स्वीकार करेंगे कि यह व्यवस्था का वह प्रकार है, जो विगत तीन-चार दशकों से सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में पूर्वागत परम्परा से अपनी शैक्षिक व्यवस्था के रूप में प्राप्त हुआ है. कोई भी देश या राज्य बचा हुआ नहीं है. ऐसा लगता है कि हमलोगों ने बिना किसी आत्म प्रतिबिम्बन के कमोवेश इसे स्वीकार कर लिया है, यह बहुत खतरनाक है. मेरी दृष्टि में यह अपनी संवेदना को ध्वस्त करने जैसा है. मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि हमें अपने बच्चों को विद्यालयों और विश्विद्यालयों में विक्रय कौशल प्रदान नहीं करना चाहिए. लेकिन क्या ऐसा करते हुए हमें एक नागरिक के रूप में सामाजिक न्याय और नीति की जवाबदेहियों से पूर्णत: विमुख हो जाना चाहिए? क्या हम इसे अलग-अलग श्रेणियों में नहीं कर सकते हैं? क्या बाजार की आवश्यकताएँ सामाजिक नैतिकताओं से बिलकुल विमुख होनी चाहिए? मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि शैक्षिक व्यवस्था में सामाजिक नैतिकता को समाप्त करने की योजना है, जैसा हम समझ सकते हैं कि बहुसंख्यक विचारों के प्रति धीरे-धीरे बढती असहिष्णुता अब इस क्षेत्र के विभिन्न देशों में राजनीतिक प्रतिमान के रूप में प्रकट होने लगी है.

Image courtesy of Ravi Kumar, Department of Sociology, SAU
मैं यह भी नहीं देख पा रहा रहा हूँ कि हमारे समय में प्रदान की गयी इस शिक्षा पद्धति में सबकी अनिवार्य रूप से नियोजनीयता है. तो भी, एक ही समय, वे सामाजिक न्याय और इससे सम्बद्ध के आदर्शों प्रति अभिरुचि खोते जा रहे हैं. दुर्भाग्यवश श्रीलंका और भारत के जिन बहुत सारे युवकों से साक्षात्कार के दरम्यान मेरी बातचीत हुई, वे इसी श्रेणी में आते हैं. 1970 के दशक में ऑस्ट्रेलिया के शक्तिशाली खदान उद्योग के आग्रह पर उस देश के कुछ विश्वविद्यालयों ने बाजार की उपयुक्तता के अनुसार प्रशिक्षण शुरू किया. दो दशक बाद खदान उद्योग ने विश्विद्यालय को फिर से पत्र लिखकर अपने प्रशिक्षण में अपनी जरूरतों के और अनुकूल परिवर्तन करने के लिए कहा. ऐसा इसलिए कि उनलोगों ने पाया कि जो स्नातक वहाँ से आये, वे अत्यधिक संकीर्ण प्रशिक्षित थे आयर वे आसानी से पुनर्प्रशिक्षित नहीं किये जा सकते थे, क्योंकि उनका प्रशिक्षण अपर्याप्त था. मेरी धारणा है कि कमोवेश यहाँ के विद्यालय और विश्वविद्यालय की वर्तमान में यही स्थिति है. आपको यह निश्चय करना है कि आप एक अभिभावक, पदाधिकारी, राजनीतिज्ञ और नागरिक के रूप में क्या चाहते हैं.

अब मुझे पाठ्यपुस्तकों के बारे में कहना है. पाठ्यपुस्तकें शक्तिशाली शिक्षाशास्त्रीय साधन हैं. वे विचारों के वाहक हैं. यह इसलिए है कि लेखन में स्थापित विचार, वाचिक शब्दों की अपेक्षा, अधिक शक्ति, प्रभाव और जीविता रखते हैं. और इसलिए इसका टिकाऊ प्रभाव युवकों के मस्तिष्क पर होता है. पाठ्यपुस्तकें केवल पढ़ना सीखने के लिए पढ़ाना नहीं हैं और न तो विशेष विषयों के प्रारम्भिक तथ्यों की जानकारी देना मात्र है. बल्कि यह नागरिकता की ओर संलग्नता तथा युवा मानसिकता को उसकी ओर ढ़ालने करने के लिए भी है. लेकिन तब क्या होगा जब पाठ्यपुस्तकें इन संभावनाओं को ध्यान में रखकर नहीं बनाया गया हो? चूँकि पाठ्यपुस्तकों की क्षमता अच्छी तरह समझी जा चुकी है, यदि  वैकल्पिक रूप से यह छोटे-से राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए लिखा गया हो, तब क्या होगा? मेरे अनुसार, विषय से सम्बंधित आवश्यक प्रशिक्षणों के परे पाठ्यपुस्तकें स्पष्ट रूप से सामाजिक यथार्थ और जागरूकता को परिलक्षित करता है. ऐसा खासकर भाषा के पाठकों, इतिहास के पाठों, धार्मिकता के पाठों, नागरिकता के पाठों, समाज अध्ययन के पाठों को पढनेवाले का सन्दर्भ में है. अनेक देशों और प्रान्तों में इसमें भिन्नता मिलती है. लेकिन वे इस अर्थ में निरपेक्ष नहीं हो सकती हैं. पाठ्यपुस्तकें को निश्चित पक्ष तय करना पड़ेगा. इस सन्दर्भ में अनेक देशों में पाठ्यपुस्तकें वर्षों से चिंतनीय स्थितियों से गुजरी हैं.

जैसा कि शिक्षा के समाजशास्त्र के तहत सुविदित है कि अमेरिका के कैलिफोर्निया और न्यूयार्क में पढाये जाने वाले अमेरिकी इतिहास की 1960-70 में आलोचकों ने निंदा की कि उसे जातीय-सांस्कृतिक वास्तविकताओं और इतिहास से जोड़कर प्रस्तुत नहीं किया गया है. बहुत हाल में McGraw-Hill world Geography पाठ्यपुस्तकें, जो अमेरिका के नवें वर्ग में प्रयुक्त हैं, उसके ‘पाठ पलायन के  तरीके’ में कहा गया है कि “The Atlantic slave trade between the 1500s and 1800s brought millions of workers from Africa to the Southern United States to work on agricultural plantations.”  अमेरिका में अफ्रिका से गैरकानूनी और अनैतिक ढंग से लाये गए दास, जो बंदी बनाए गए थे, जिनके साथ क्रूर व्यवहार किया गया था, जिन्हें उजाड़ दिया गया था और जिन्हें दुनिया के विभिन्न जगहों में बाजार के सामान की तरह भेजा गया था, उन्हें कहा गया कि वे कानूनी तौर पर पलायन करके मजदूरी के लिए आये थे. इसी तरह जापानी विद्यालयों की पाठुपुस्तकों में द्वीतीय विश्वयुद्ध में कोरिया और चीन के विरुद्ध सैनिकों की आक्रामक भूमिका की चर्चा नहीं है. श्रीलंका की पाठ्यपुस्तकों में विनाशकारी जातीय संघर्ष की चर्चा नहीं मिलती है और जन अधिकार के लिए अमेरिका में 1960 में जन संघर्ष की चर्चा नहीं है. अफ्रिका में रंगभेद और भारत में जातीय संघर्ष की चर्चा नहीं है. रोमिला थापर, हरवंश मुखिया, प्रो. विपिन चंद्रा भारत की पाठ्यपुस्तकों में इतिहास में समस्यायों पर चर्चा की है. इसलिए हमलोग जो बात यहाँ कर रहे हैं, यह वैश्विक  समस्या है. बहुत गहराई के साथ तैयार भ्रामक पाठ्यपुस्तकें तैयार कर हमलोग किस तरह के नागरिक तैयार कर रहे हैं, जबकि इन दिनों हम कक्षा के बाहर भी की पुस्तकों का स्तर भी काफी गिरा है.

इस स्थिति में आपको इस निर्णय पर पहुँचना होगा कि आपकी पाठ्यपुस्तकों का हाल किस रूप में है. क्या वे छात्रों को विश्वस्तरीय स्तर पर और उनके अपने परिवेश में उनका क्या स्थान है, इसका मूल्यांकन का अवसर देती हैं? क्या उनको यह विचार देती हैं कि उनको किस प्रकार का नागरिक होना चाहिए? क्या वे समावेशी सोच, सहिष्णुता के विचार इत्यादि लोकतंत्र के लिए जरूरी बातों को प्रोत्साहित करती हैं? यदि वे कुछ हद तक भी करती हैं तो यह माना जा सकता है कि ये चीजें नियंत्रित की जा सकती हैं. लेकिन मैं निश्चित नहीं हूँ कि इस तरह की बातें यहाँ हैं.

मुझे उत्सुकता होगी यह जानने की कि यह परियोजना और कार्यशाला से किस प्रकार के तथ्य विकसित होते हैं. मुझे उम्मीद है कि यह भारी-भरकम आधार प्रदान करेगा, जिस पर हमलोग ठोस निर्णय लेंगे. संभवत: हम उस दिशा को बताएँगे जिसपर राज्य सरकार की शिक्षा, यदि वे चाहें तो, चल सकेगी. यह इस कार्यशाला की तात्कालिक व्यावहारिक उपयोगिता है. लेकिन एक विश्वविद्यालय के रूप में ये हममें समझ पैदा करेंगी कि कम से कम देश के एक भाग में ये बातें किस तरह काम करती है. यह ज्ञान के लिए है, जो हमारे अपने शिक्षण को भी प्रेरित करेगा.


जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, हम जिस विश्विद्यालय से आते हैं, उसे आठ देश रकम मुहैया कराते हैं. मैं बहुत प्रसन्न होऊंगा यदि भविष्य में कोई ऐसा दिन आता है, जो हम बिहार में कर रहे हैं और जो विमर्श हमने यहाँ किया है, उसकी चर्चा दक्षिण एशिया के दूसरे भागों में भी हो. यदि ऐसा होता है तो अपने पड़ोसी देशों के प्रति भी हमारा दायित्व पूरा होगा. धन्यवाद!

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